Wednesday, March 31, 2010

धर्म

धर्म के नाम पर किया गया दुष्प्रचार तथा फैलाई गई घृणा अंततोगत्वा, उसी धर्म की छवि को धूमिल करती हैइसीलिये भी उसी धर्म के लोगों का दायित्व बन जाता है कि खुल कर आगे आएं और ऐसे धर्माचारियों(?) की निन्दा, भर्त्सना कर उन्हें हतोत्साहित करेंऔर धर्म के प्रति अतिसम्वेदनशीलता भी घातक हैकुछ बुरी बातों को नजरअन्दाज क़र देना चाहिये, दूसरे धर्म के लोग आपके धर्म के प्रति बदतमीजी क़रके अपने धर्म की तुच्छता ही जता रहे होते हैं, आपके धर्म का क्या बिगडने वाला है? जो कि शाश्वत है

यदि कोई व्यक्ति अपने आपको संत कहलवा कर एक सम्प्रदाय द्वारा किसी अन्य व्यक्ति या अन्य धर्मावलम्बियों/विचारालम्बियों पर अत्याचार करने का आह्वान करता है या फतवा जारी करता है या उनकी भावनाओं पर आघात करता है तब होना यह चाहिये कि स्वयं उसीके सम्प्रदाय लोग उसके विरुध्द आवाज उठाएं। प्रभावित सम्प्रदाय के लोगों को तो आगे आकर कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पडनी चाहियेऐसे तथाकथित संतों को अपनी असली औकात जल्दी ही समझा देनी चाहिये

संत ऐसा नहीं होता जिसे एक जाति संप्रदाय तो पूजे और दूसरे संप्रदाय वाले, दीनधर्म वाले लानत भेजेंकम से कम हमारा इतिहास तो ऐसा नहीं कहता जहां सूफी सन्तों की सब धर्मों को मानने वालों ने समय समय पर सम्मान दिया हैयह इसलिये कि वास्तविक संत देश काल अथवा समुदाय विशेष से बंधा हुआ नहीं होताउसके हृदय की गहराइयों में सम्पूर्ण मानव समाज की भलाई की भावना रची बसी होती हैऐसी भावना हर पल उसके आचरण से ही स्वत: स्फुटित होती हैइसीलिये सभी धर्मों के सब लोग बिना किसी भेदभाव के उसी संत के होकर रह जाते हैंउसे सदा आदर और प्यार देते हैंऐसे अनेक सन्त भारत में हुए हैं _ कबीर, गूगा, लालीसन को तो सभी जानते हैंइन्हें हिन्दु कहो या मुसलमान इससे क्या फर्क पडने वाला है? ईसा तथा नानक के प्रति सभी के मन में अटूट श्रध्दा विराजमान है


1 comment:

  1. आइये मेरे ब्लॉग पर और पाये पहेलियों के जवाब

    http://chorikablog.blogspot.com/2011/02/blog-post_20.html

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